Saturday, December 17, 2011

Project component

1st Fortnight of December
News get Published in Daily "Sakal"
Matka installation for moisture base irrigation
Convergence through MGNREGS
New Dug well initiated by 'Shramdan'
Smockless chulha making at Ramtek
2nd year plant @ Malkapur

New dug wells at malkapur
Contour at Badnapur
Compost Pit Toranwadi
Matka installation and Mulching- Toranwadi
Hirdamal staging
New dug Well Manjarkapdi
Dam Repaired at Borala

Monday, December 12, 2011

Four friends

जहाँ चार यार ...

बचपन की यारी वक़्त के साथ ज्यादातर कुछ खट्टी मीठी यादें बन कर रह जाती है. और जाब बात एक अति पिछड़े आदिवासी गाँव के कुछ बच्चों की हो तो फिर रोजी की तलाश में खानाबदोशों सी जिंदगी बसर करना ही नियति होती है. ऐसे में दोस्ती जैसे रिश्ते के मायने और निभाने की बातें बहुत व्यावहारिक नहीं होते. पर मेलघाट के सीमांत गाँव बोराला के भारत जम्बू और उनके तिन दोस्तों ने न सिर्फ साथ रहकर अपनी दोस्ती निभाई है बल्कि गाँव का सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी बदल कर रख दिया है. चारों दोस्त आज नाबार्ड अर्थसहाय्यित वाड़ी प्रकल्प की बोराला ग्राम नियोजन समिति के कर्णधार है. बाबाराव बेठे इस समिति का अध्यक्ष है तो वहीँ भारत जाम्बु, दयाराम जाम्बु और दीपक महल्ले ग्राम नियोजन समिति में सदस्य है.  (Continue)

Wednesday, December 07, 2011

clean village activity

डॉ. आंबेडकर जयंती पर गाँव स्वछता अभियान 
 समाज के पिछड़े तपके के जीवनस्तर को ऊँचा उठाने के लिए जीवन भर प्रयत्न करने वाले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने का मलकपुर गाँव की महिलाओं ने एक अनोखा तरीका सोचा. ६ दिसंबर को सभी बचत गत की महिलाओं और स्कूली बच्चों ने मिलकर गाँव को पूरी तरह से साफ़ सुथरा किया. वाड़ी प्रकल्प के इस गाँव में महिलाओं ने ही १००% शराब बंदी की है. आज इस गाँव के बचत गत विविध आय अर्जक गतिविधियों के साथ ही सामाजिक नेतृत्व में भी सक्रीय सहभाग ले रही है.
सर्वप्रथम गाँव की महिलाओं ने एकत्रित डॉ. आम्बेडकर की प्रतिमा को माल्यार्पण किया. वाड़ी
प्रकल्प के सामाजिक कार्यकर्त्ता सुधाकर मोहोड इन्होने डॉ. आंबेडकर की जीवनी पर प्रकाश डाला. प्रकल्प के सभी कार्यकर्ताओं ने भी गांववालों के साथ इस गतिविधि में सक्रीय योगदान किया.

Tuesday, December 06, 2011

organic compost fertilizer



समाधी खाद 
 जानवर और इंसान का रिश्ता उतना ही पुराना है जितना की इंसान का अस्तित्व. खासकर जब बात आदिवासियों की हो तो उनके जानवर खेती, घर, त्यौहार लेन-देन से जिन्दगी के हर क्षेत्र में अनन्य साधारण  महत्त्व रखते है. पर जहाँ इंसान की जिन्दगी ख़त्म होने पर  एक सन्मानजनक विदाई होती है तो वहीँ बेचारे जानवर को सड़ने के लिए फेंक दिया जाता है. पर मरने के बाद भी जानवर खेती करने वाले किसान को एक इसी बेशकीमती सौगात दे सकता है, जिसके बारे में अधिकाँश गाँव वाले अनभिग्य होंगे, अगर मरे हुए जानवर को एक सही तरीके से दफनाया जाये तो तो अगले ८ महीनों में एक अति उपयुक्त खाद बन के तैयार हो जाएगी. जिसका की उपयोग ५ एकड़ के खेती को सुजलाम सुफलाम बनाने के लिए किया जा सकता है. फास्फोरस की प्रचुर मात्र से परिपूर्ण इस खाद को बनाने का तरीका काफी आसान है.


विधि-  
  1. जानवर के आकार का एक गड्ढा खोद लें.
  2. गड्ढे को गोबर से लिप दें.
  3. नीचें १० से १२ किलो नमक डाल दें .
  4. जानवर को हलके से उस गड्ढे में उतार दें.
  5. उसपर फिर से १० से १२ किलो नमक डाल दें.
  6. गोबर और अन्य कचरे से गड्ढे को ऊपर टीला बना के भर दें.
  7.  ठीक बीचों बिच निशानदेही के लिए एक पत्थर गाड़ दें. 
इस प्रकार से बनायीं गयी खाद ८ महीने बाद खेत में प्रयोग हेतु उपयुक्त होगी. और जीवन भर हमारा साथ निभाने वाले जानवर को समाधी के रूप में एक सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी.

 

Saturday, December 03, 2011

Water resource development

मेळघाट में जनसहभाग से भागीरथ प्रयास
सरकारी और सामाजिक योजनाओं में जनसहभाग न होने का ठीकरा हमेशा से मेळघाट के आदिवासी समुदाय पर फोड़ा जाता है. पर नागेश्वरा
 चैरिटेबल ट्रस्ट ने नाबार्ड पुरस्कृत वाड़ी परियोजना के माध्यम से श्रमदान और जनसहभाग को गाँववालों के लिए एक सन्मानजनक आदत बनाया है.
इस साल मानसून के रूठे रहने की वजह से ठण्ड की शुरुवात से ही सभी जलस्त्रोत्र सूखने लगे है. ऐसे में अगर तुरंत जल संवर्धन हेतु सही कदम नहीं उठाये जाते तो खेती पर पूरी तरह से निर्भर आदिवासी किसान फिर से पलायन के दुष्टचक्र में फंसते चले जाते. वाड़ी प्रकल्प के द्वारा लगाये गए आम और आंवले के पौधों को जीवित रखने के लिए भी पानी की जरुरत थी. प्रकल्प के सभी २५ गांवों की गाँव नियोजन समितियों ने इस चुनौती का सामना करने के लिए कमर कसी. प्रकल्प का सहयोग और गाँव के श्रमदान से जल् संसाधनों के विकास की नयी रुपरेखा तैयार की गयी. 

२० नवम्बर से शुरू हुए इस अभियान में अभी तक १५ नए कुँओं का निर्माण, पुराने बांधों की दुरुस्ती, छोटे छोटे वनराई बांधों की निर्मिती जैसे कई काम अमल में आ रहें है . जिस वजह से रबी की फसल के लिए भरपूर पानी की उपलब्धता सुनिश्चित हो पाई है. रोजगार की तलाश में जिन लोगों ने पहले पलायन का मन बना लिया था, आज वो ही लोग अपने खेतों में बुआई में जुटे है. 

 कुँओं का निर्माण और दुरुस्ती-
इस साल ४० से अधिक नए कुओं को बनाने की योजना है. गाँव की समिति द्वारा १० से १५ फुट की खुदाई श्रमदान से करवाने के बाद आगे की खुदाई और निर्माण कार्य प्रकल्प के अनुदान से करवाया जा रहा है. १०० से ज्यादा पुराने कुओं को भी ठीक करवाया जा रहा है. पर जिनके कुँओं को सुधारा जायेगा उन्हें अपने खेत के आस पास की वाडियों को पानी देने का प्रतिज्ञापत्र देना होता है. और जो वाड़ी धारक इससे लाभान्वित होंगे वे श्रमदान के माध्यम से अपना सहयोग कुंवे की दुरुस्ती में देते है. 

बोरी बांध- 
छोटे छोटे जलप्रवाह और स्त्रोतों के पानी को रोकने का सबसे बढ़िया उपाय है बोरी बांध . मलकापुर, चिचाटी, बोराला, बदनापुर, काजलड़ोह सहित अनेक गांवों में प्रकल्प के लाभार्थियों ने श्रमदान से  कई बाँध बनाये है. प्रकल्प द्वारा  बोरी और सुतली उपलब्ध करवा देने के अलावा तांत्रिक मार्गदर्शन भी किया जाता है. जहाँ शुरुवात में केवल ३० बोरी बंधों का काम प्रस्तावित था वो आज ७० से भी अधिक होनेवाला है.इस पानी का उपयोग वाड़ी के साथ ही फसलों के सिंचन और मवेशियों के पेयजल के रूप में भी हो रहा है.

प्रकल्प द्वारा सभी गांवों में २ बैलगाड़ियाँ , प्रत्येक लाभार्थी को फायबर का ड्रम, गाँव में २ होंडा के पम्पसेट, प्रत्येक पेड़ के सिंचन हेतु २ मटके जलसंसाधन विकास हेतु उपलब्ध करवाकर दिए गएँ है. इस वजह से जहाँ एक ओर पलायन कम हुआ है तो वहीँ दूसरी ओर प्रकल्प के कार्यकर्ताओं द्वारा पलायन किये हुए लोगों को गाँव में वापस लेन के प्रयास जारी है.

Tuesday, November 29, 2011

उम्मीदों का बांध

उम्मीदों का बांध 
पर्यटन क्षेत्र चिखलदरा की तराई में बसा गाँव चिचाटी जितना सुन्दर है उतना ही इनकी आजीविका का प्रश्न कुरूप है. शहरी जीवन से अलग थलग पड़े चिचाटी  गाँव में  उबड़ खाबड़ जमीन का सीना चिर कर अनाज उगने के सिवा रोजी का कोई दूसरा साधन नहीं है. उसमें भी जंगली जानवरों का भय और जल संसाधनों का अभाव परिस्तिथि को बदतर कर रहा है. गाँव के पीछे बने एकमात्र बाँध में पिछले  कई सालों से दरवाजे न होने से पहाड़ से उतरने वाला एक बूंद पानी भी सहेजना मुश्किल था.
गाँव में इसी साल से शुरू हुए नाबार्ड वाड़ी परियोजना  की गाँव नियोजन समिति ने प्रकल्प क्रियान्वन संस्था नागेश्वरा चैरिटेबल ट्रस्ट से इस बांध में गेट लगाने का अनुरोध किया. गेट निर्माण का खर्च प्रकल्प द्वारा और बांध की सफाई और मिटटी भरने का श्रमदान गाँव का होगा यह बात तय हुई. बांध के दरवाजे का खांचा टेढ़ा होने की वजह से गेट की फिटिंग नामुमकिन हो गयी, पर गाँव वालों के सहकार्य से बांध के खांचे तोड़ कर सीधे किये गए और लोहे के दरवाजे लगाये गए.  
दो दिन में ही बांध पानी से लबालब भर गया. अब चिचाटी   के कई किसान पलायन की बजाय ठण्ड में गेहूं और चने की फसल की तयारी कर रहे है. प्रकल्प के एक कार्यकर्त्ता डॉ.अमोल मामनकर तो पिछले कई दिनों से इसी गाँव में रह रहे है. सामाजिक परिवर्तन के सहभागिता के सिद्धांत को चरितार्थ करते हुए अमोल ने आज इस गाँव को अपना परिवार बना लिया है. वाड़ी प्रकल्प के माध्यम से लगी आम और आंवले की वडियों की देखभाल के गुर सिखाने के साथ ही वह किसानों के जानवरों का निशुल्क इलाज भी कर रहा है. आज इस गाँव में मुर्गी पालन , गाय की प्रजाति  सुधार जैसे प्रयास भी जोरों पर है.

वाह आजू भैया ....

वाह आजू  भैया ....
      ३ साल पहले तक आजू झोले अखंडे अचलपुर की एक संतरा वाड़ी में ३०० रूपये सप्ताह की दर से मजदूरी किया करता था. पाँच बच्चों का परिवार पालने के लिए पत्नी को भी लोगों के घर काम करना पड़ता था. चिखलदरा के बामादेही गाँव के आजू के हिस्से तिन भाइयों में बांटकर ढाई एकड़ खेती ही बची थी, वो भी ऐसी उबड़ खाबड़ और बंजर की खेती उसके लिए एक दुष्ट स्वप्न बन कर रह गया था. अपनी मिटटी को छोड़ ७०  किलोमीटर दूर दूसरों की गुलामी करते हुए भी आजू के हौसलों ने अभी हिम्मत नहीं हारी थी. गुलामी की इस जिन्दगी में उसके पास अपने बच्चों को देने के लिए मज़बूरी छोड़ के कुछ नहीं होगा इस बात का उसे बखूबी अहसास था. सरकार द्वारा आदिवासियों के लिए चल रही विविध योजनाओं के बारे में उसने सुना था. आखिरकार आजू ने मजदूरी छोड़ कर फिर से अपनी मिटटी का रुख किया. 

आज उसके पास २ भैस २ गायें २ बैल और ३ बकरियां  है, वह साल में दो फसल लेता है बरसात में सोयाबीन और ठण्ड में गेहूं -चना , आजू के खेत में केसर आम और आंवलों के पौधे सुनहरे भविष्य की बानगी दे रहें है. उसकी १० वि कक्षा पास एक लड़की की शादी हो गयी है, २ लड़कियां  १२ वि कक्षा तक पंहुची, आज सबसे छोटी बेटी शारदा ८ वि कक्षा में पढ़ रही है. तो उससे बड़ा विजय १० वि की तयारी कर रहा है. आजू अखंडे आज नाबार्ड  बैंक की वाड़ी परियोजना की बामादेही गाँव नियोजन समिति का समन्वयक है.

आज जहाँ आजू पहुंचा है वो उसे जानने वालों के लिए अविश्वसनीय होगा. परन्तु सकारात्मक सोच और कड़े परिश्रम ने उसकी किस्मत के दरवाजे खोल दियें है.


आजू और उसकी पत्नी ने दिन रात कड़ी मेहनत करके पहाड़ी जमीं को खेती योग्य बनाया. प्रोजेक्ट ऑफिस धारणी से डीजल इंजिन प्राप्त किया. रोजगार गेरेंटी योजना से नया कुँवा बनवाया. और आजू की इसी प्रगति वादी सोच को पंख दिए नाबार्ड की वाड़ी पारियोजना ने. ७ साल बाद एक एकड़ जमीन से १ लाख की कमाई का सपना अखंडे परिवार बुन रहा है. प्रकल्प क्रियान्वन संस्था नागेश्वर चैरिटेबल ट्रस्ट  भी उनके इन सपनों में रंग भरने के लिए हर कदम उनके साथ है. प्रकल्प कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन से खडी पहाड़ी ढलान पर आम के पेड़ हेतु  जो पत्थर का चबूतरे उसने बनाये  है, वो उसकी अपने भविष्य का शिल्पकार खुद बनने की कटिबद्धता को दर्शाता है.  पौधों में फूटती कोंपलों  को 
 देखकर आजू के चेहरे पर वही ख़ुशी है जो एक बाप को अपने बच्चे को बढ़ता देख होती है.

Monday, November 28, 2011

अमृतजल

अमृतजल 
यानि की अमर करने वाला जल. गाँव में सहज और मुफ्त में उपलब्ध गोबर और गोमूत्र से बनने वाले इस अमृत जल ने मेलघाट आदिवासी किसानों को एक नयी सोच दी है. आज वे इसका इस्तेमाल आम के पौधों में ही  नहीं वरन खेती में भी कर रहें है. जैविक खेती का यह मूल मन्त्र नागेश्वारा चैरिटेबल ट्रस्ट घर घर तक पंहुचा रही है.